बदल जाती है इबादत इस ज़माने की बदलते मौसम के साथ..
कभी धूप कभी पानी कभी शीत हवाओ की आस लगाए मिलते है..
चंदन से लिपटा है नाग जैसे वो लिपटे अपने आपसे...
ज़िंदगी की इन रहो पर कितने ही गुमराह ठोकर खाए मिलते है..
दर्द बाँट कर खुशियाँ छानते... फरिश्ते है ऐसे भी..
कोई गली गली नमकीन पानी की मानो दुकान लगाए मिलते है..
सुखी आँखो की नज़र से बिलखती ज़िंदगी का लुत्फ़ उठता है कोई..
और कभी सागर के किनारे भी जल मे समाए लगते है..
मैं भी चल देता हू बंजारो की तरह सच की खोज मे..
ज़िंदगी की इन रहो पर कितने ही गुमराह ठोकर खाए मिलते है..