Wednesday, November 30, 2011

सुनहरा कल

ज़मीन के जिस टुकड़े के लिए
बहा दी नादिया हमने खून की

कैसे जियेंगी अवाम हमारी..
ज़िंदगी वहाँ सुकून की..

क्या मिला अंजान हमे इतनी नफ़रत से..
है बस ये लड़ाई एक जुनून की..


आओ मिल कर बढ़ाए हम आगे..
झगड़ा छोड़ परवाह करे दो वक़्त के चून की..


शाम हो हर लम्हा मस्तानी..
रहे गरिमा बिखरी जैसे अरुण की..

हम भी जिए ओर तुम भी जियो
ओर वतन जिए ज़िंदगी एक सुकून की

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