Monday, December 12, 2011

सोच

झील के किनारो पर
बैठा जब कभी सोचता
श्रुन्खला अल्फाज़ो की
बन जाए आवाज़ जो
बिखरते इस ज़माने की


जम चुका है कहीं
समय के साथ साथ..
अहसास कुछ कर जाने का
सोचता एक अग्नि जो
आस दिखाए उसे सुलगाने की


खोजता परछाई जो
साया बन जाए
गिरते हमारे ज़मीर का
संभाले उसे हर ठोकर पर..
कला बताए गिर कर उठ जाने की..


देखता दर्पण वो
दिखाए चेहरा सबको
अंधे इन रिवाज़ो का..
संवारे उनको एक नये रूप मे
कसमे बन जाए जो हो निभाने की..

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