Friday, December 9, 2011

उड़ान स्वार्थ की


सवेरे जो उड़े परिंदे
नयी घोसलो की चाह मैं..
शाम तक आई याद लम्हो की..
बिताए जो पुराने घोसलो की राह मे

उड़ चुका है बहुत दूर तक..
पर सफ़र कहीं ख़त्म होता नही है.
थक जाता है अक्सर उड़ते उड़ते.
पर घोसलो की फ़िक्र मे सोता नही है..


अपनी स्वार्थ की उड़ान पर..
एक नया समा बनता...
उड़ता अपनी धुन मे इस तरह..
कि सब कुछ पीछे छोड़ता जाता

बना रहा है या बिगाड़ रहा है
ये कभी समझ ना पाता
या समझ कर भी बनता नासमझ
ओर अपनी दुनिया रोन्दता जाता

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