Thursday, October 11, 2012

जब भी ज़िक्र होगा मोहब्बत का ...

समेट लू इन गुज़रते लम्हो को 
अपने मन के किसी कोने मे.. 
ये याद आएँगे हर दूं..
जब भी ज़िक्र होगा मोहब्बत का ...

कि तुम थे एक कोशिश मे.. 
साथ मेरे चलने की..
मेरी रफ़्तार पकड़ने की..
ना थी कोई भावना स्वार्थ की...

इतना अनोखी चाहत..
ना कभी देखी ना कहीं सुनी..
अफ़सोस है मुझे की
ये एक कहानी ना बनी...

तुम्हारी शिकायत कि..
मिलते नही हो ख्वाब मे भी..
मैं असमंजस मे हू..
कि मिल कर नज़ारे कैसे मिलाऊ..
डरता हू खुद से ...
तेरा सामना कैसे कर जाऊ..

साथ चलना मुमकिन नही है..
कसूर कहीं ना कहीं मेरा ही है..
कमजोर नही है मोहब्बत तेरी...
मैं ही हरा हुआ हू खुद से...

याद आएँगे लम्हे तेरे साथ के..
जब भी ज़िक्र होगा मोहब्बत का...

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