मध्यम मध्यम पूर्वा..
अटखेलियाँ करती हुई..
एक जोश भरते हुई..
कंपकपाते हुए शब्द मेरे..
अब एक आवाज़ बनने लगे है..
मैं भी तो हू झोंका,,
इस मनचली हवा का आख़िर..
सारी हदे तोड़ कर...
अब तूफ़ानो की तरह बहने लगा हू...
मैं उन्मुक्त हो चुका हू फिर अब..
की ज़ंज़ीरे बंदिशो की स्वयं खुलने लगी है..
मैं भँवरा बन अब
इच्छुक फूलो पर रहने लगा हू...
कई मौसम आ चुके है..
कई मौसम अभी आने की राह देख रहा मैं..
शुष्क भी है कुछ.. ओर कुछ तरल भी...
बस अब मैं लग रहा की ये मैं भी था कहीं..