कहने को दुनिया मुट्ठी में हैं अपने,,
यूँ मेरा देश भी मेरा अपना नही,,,,
जिन की खातिर कितने कुर्बान हो गये हंसते हंसते..
मेरी आँखो मे आज वो सपना नही..
मैं लड़ जाऊँगा धर्म के नाम पर..
पर वतन के लिए चेतना मुझे आती नही ..
गुलामी की जंजीरो की आदत मुझको..
दो साँसे आज़ादी की मुझे सुहाति नही...
अच्छा है यदि लड़े दो चार प्रांत के नाम पर,,,
अपना कुछ तो भला होगा..
अपने घर मे आग लगा सोचता में..
आख़िर इससे घर पड़ोसी का भी तो जला होगा...
पढ़ाई पर बच्चो को देकर लालच नयी साइकल का...
महफ़िलो मे भ्रष्टाचार पर मैं बतियता हू...
जब घड़ी आती है ईमान परखने की..
चंद सिक्को से मैं परीक्षा से ही बच जाता हू..
मैं लड़ता हू आरक्षण पर..
पानी ओर रोटी की लड़ाई से भला मुझे क्या करना..
काम है मेरा नारेबाज़ी करना आख़िर..
उसी से शाम को मेरे घर का चूल्हा है जलना...
यूँ ताक़त है मुझमे ज़माने से भीड़ जाने की..
प्रेमियो को सरे आम मार कर.. सभी समाज बनता हू...
और जब कोई मुझसे मेरे हक मार ले जाता है..
मैं मजबूरी का बस झुन्झुना बजता हू...
ये मैं इस अंजान का भी हिस्सा है..
शायद एक दूसरे का यही एक किस्सा है...
मत समझना मेरा उद्देशय है सिर्फ़ व्यंग्य..
मैं तो आत्मा मेरी जगाना चाहता हू..
देश के लिए मर मिटे जो..
शब्दो के सहारे एक ऐसे पीढ़ी बनाना चाहता हू...
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