इन पलो को चलो फिर से पिरोए हम...
कुछ सपने खुली आँखो से भी संजोए हम
देखे है बिखरते अपने भी और पराए भी..
आँखे बंद कर अब चैन की नींद सोए हम
कभी दूर थे वो..
कभी साथ तेरा तेरे भाग्य ने छोड़ा था..
कभी तू भी हारा था अपने आप से..
कभी दूसरो की हार ने तुझे झनझोड़ा था
कभी बिलख कर कट गयी थी शाम कोई..
मुखौटा लगा झूठ का दामन ओढ़ा था..
सच बोल कर भी रोया था जब तू..
ओर सच सुन कर भी अपने ने नाता तोड़ा था..
आज वो समय नही की
उनका गम मनाया जाए...
आज आ गया है मौसम सुबह का..
तन्हाई के अंधेरो मे एक नया दीपक जलाया जाए...
अकेला चलना फ़ितरत बन चुकी है तेरी..
तू बरसेगा कभी पागल मेघ की तरह..
बन जा प्रेमी उस बहती नदी के जैसे ..
जो मिल जाती सागर मे उसी की तरह..
अनजान है तू अब..
पहचान कर इस बदलते रुख़ से..
आज क्यों ना अपने आप को भूल कर...
एक मदहोशी मे फिर से खोया जाए...
चलो आज फिर इन पलो की माला मे
एक और मोटी पिरोया जाए...
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