Sunday, December 4, 2011

तन्हाई

फ़ितरत थी उनकी चले जाना
क्यों तू अब इस का गम मानता है
अंधेरे होते है जब..
अपना साया भी तन्हा छोड़ जाता है..


सुख के थे वो साथी तेरे..
दुख मैं कौन अपनापन निभाता है..
चाँद की भी आदत है ये तो ..
काली रातो मे आसमा को तनहा छ्चोड़ जाता है..




सन्नाटा है मरघाट का..
जब बादल गम का छाता है
तू रोता अपने नसीब पर..
पर दर्द तो सबके हिस्से मे आता है


छितिज तक फैला है आसमान.
पर सूरज इस पर भी छिप जाता है.
ओर जिस साथ का तुम गम मानता..
वो वक्त के साथ अक्सर बदल जाता है


ख़ौफ़ तुझे तन्हा चलने का..
क्यों हर पल यू सताता है..
आया है जो अकेला इस जहाँ मे
अंजान अकेला ही वो यहाँ से जाता है

1 comment:

  1. Hey Aman. nice poems dude...

    Its quite inspiring...

    Thanks
    Sahil

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