Friday, December 2, 2011

सवाल

अंगड़ाई लेती शाम पूछती है मुझसे..

की क्यों उसका तू इंतज़ार करता है...

क्यों अपनी ज़िंदगी को

उसके गम मे बेकार करता है..

कह देता हू शाम से मैं भी..

कि बेवजह नही है इंतज़ार मेरा..

ये भी एक अदा है अंजान की..

जो उनकी बेवफ़ाई से भी प्यार करता है..


महकता गुलिस्ताँ अक्सर पूछता है..

कि क्यों तू अपनी खुशबू खोता है..

बावरा है अंजान तू..

जो उसकी यादो के संग सोता है..

कहता हू मैं गुलिस्ताँ से..

पागल है फिर तो तू भी क्योंकि

फूल चाहे हो मुरझाए

टूटने पर उनके दर्द तुझको भी होता है


बहती हुई ठंडी हवा का झोंका..

कहता मुझसे की मैं उसे भुला दू..

लालच देता वो मुघे संग ले चलने का

कहता की आ दुनिया की सैर करा दू..

हंस पड़ता है उसकी इस नादानी पर..

ओर नासमझ से पूछता अंजान.

  कि यदि मिला सकता है तो मिला दे मेरे महबूब से..

फिर देख तुझे मैं जन्नत की सैर करा दू..



आवारा बदल भी अब तो

एक सवाल सा पूछ जाता है...

क्यों उसकी तू उसे नही भूल पता

याद मे जिसकी तू सारा जहाँ भूल जाता है

 समझाओ कोई इन बादलो को..

पूछते मुझसे ये वजह भूलने की..

की मोहब्बत है ये कोई सौदा नही..

ये जहाँ क्या यहाँ अंजान अपना वजूद भूल जाता है

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