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Thursday, October 4, 2012

एक ढके चेहरा का नकाब उतार कर दिखलाता हू..


बँधी है बेड़ियाँ कुछ वो फिर से तुम्हे सुनाता हू.,.
एक ढके चेहरा का नकाब उतार कर दिखलाता हू..

खादी पहन डाकू भी संसद मे पहुँच जाता है..
ओर एक व्यंग करने वाला कलाकार... जेलो मे मिल जाता है..
सीना छलनी करने वाले को.. बिरयानी खिलाई जाती है..
ओर शहीदो की माओ को .. दफ़्तरो की धूल चटाई जाती है
भगत सिंग ओर राजगुरु की कुर्बानी पल पल यहाँ रोती है..
जब सियासत लोगो मे नफ़रत के बीज बोती है..
मैं फिर तुमसे एक बार भारतीयता के बात बताता हू..
क्या हो तुम आज तुम्हारा तुमसे परिचय करवाता हू..

जी रहे हो तुम यहाँ.. वो जीवन बेमानी है..
परंपरा की एक अनसुलझी  कोई कहानी है..
कोई गैर रोज़ तुम्हारा खून चूसने जब आता है..
अपना ही कोई आगे बढ़ उसे फूलो का हार पहनता है..
अपनो के हाथ काट कर.. बेच देता है बाज़ारो मे..
भूखा देश नज़र आता सुबह शाम नज़ारो मे..
बिक जाती है रूह जहाँ.. उस मॅंडी से तुम्हे मिलवाता हू..
एक ढके चेहरा का नकाब उतार कर दिखलता हू..

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