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Sunday, January 15, 2012

बचपन

दिन वो बड़े सुहाने थे..
जब रूठते थे हम झूठ से
छोटी छोटी बात पर..
ओर माँ मनाती गोद मे बिठाकर,,
पूछती आसुओं को अपने आँचल से..


ना थी कोई फ़िक्र कल की,,
ना कोई स्पर्धा हर पल की..
मस्ती मे कटते थे दिन..
इंतज़ार  बस रात का होता था,,
जब चंदा मामा झाँकता बादल से..


झगड़ते थे जब हम किसी से
छोटी सी किसी बात पर..
मासूम थे हम दिल से फिर भी.
शिकायत ना थी कभी..
झूमते थे फिर उसकी एक आवाज़ से..

आगे बढ़ने की चाह में
देखो हम कहाँ आ गये है..
रूठे है तो कोई मनाने  वाला नही..
झगड़े तो कोई लौट कर आने वाला नही..
इंतज़ार अब सिर्फ़
लम्हो के गुज़रने का होता है..
जब बचपन था इतना अच्छा तो
इंसान क्यों बड़ा होता है...


पिता की उंगली हमेशा 
तुम्हारा हाथ जहाँ पकड़े थी..
माँ की कहानियाँ वो..
सुंदर सपनो मे तुम्हे जकड़े थी..
आज हम खड़े है उस जगह
लंबी राते जाग कर बिताते है..
हर पल एक बेहतर ज़िंदगी के लिए..
आँखे हो नम पर झूठमूठ मुस्कुराते है

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